कलंक

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कलंक .. 

इस समाज के लगाए कलंक बेशक़ सही हो,
उनके नज़रिए से .. 

मेरे ईमान की अदालत में, 
मैं आज भी बेगुनाह हूँ.. 

मेरी एक गलती को, 
गुनाह बना के पैश कर दिया, 
मेरी माफी को, 
कबूलित समझ के बैरियों में जकर दिया.. 

कसूर सिर्फ़ हमारा ही तो ना था, 
फिर सज़ा सिर्फ मुझे ही क्यूँ मिली.. 
प्यार तो दोनों ने किया, 
फिर कलंक सिर्फ़ मुझपे क्यूँ लगी.. 

क्या कसूर था मेरा, 
उस से बेतहाशा प्यार करना, 
उसकी हर बात को सही मन्ना , 
या मेरा कसूर ये था और है.
कि मैं एक लड़की हूँ !! 

अब तो इस कलंख के साए में ये ज़िन्दगी मेरी, 
मेरे साए में बिखरती अब ज़िन्दगी उसकी, 
फिर भी उसके लिए तड़पती रूह ये मेरी...

पर, 
कब तक सहु मैं भी ये रोज़ के ताने, 
कब तक सहु उसकी रूसवाईयां - उसकी बेरुखी, 
कब तक सहु इन कलंक को, 
आखिर कब तक, 

क्या इनका कोई आंत नहीं? 
क्या मेरी ज़िन्दगी यूँही सिमट के रेह जाएगी ? 
क्या मैं अपना मुस्काता चेहरा फिर ना देख पाऊँगी ?? 

कभी वो ख़ुदा मिले तो उस से मैं ये पूछूँगी,
क्यूँ ये इश्क़ उसने बनाया, 
जब उसमें सिर्फ कलंक ही मेंने पाया!! 

         ~Anamika 

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